Tuesday, 26 March 2013

गोबिंद घाट – श्रीनगर -ऋषिकेश

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गोबिंद घाट – श्रीनगर -ऋषिकेश


सुबह पाँच बजे, सड़क पर गाड़ीयों की आवाज़ सुनकर नींद टुट गयी और जब हम उठकर बैठे तो देखा कि शुशील और सीटी भी हमारे पास सो रहे थे। असल में रात में ज्यादा बारिश से उन पर बौछार पड़ने से वो जब भीगने लगे तो हमें ढूढ़ते हुए यहाँ पहुँच गये और हमारे साथ सो गये थे। हम चारों उठकर अपनी गाड़ी प पहुँचे और बाकी सब साथियों और ड्राईवर को उठाया। अभी यहाँ कोई भी दुकान नहीं खुली थी इसलिये 10 मिनटों बाद ही जोशीमठ की ओर निकल दिये और ड्राईवर को बोल दिया कि रास्तें में जो भी चाय की दुकान खुली मिले वहीं गाड़ी रोक देना। जोशीमठ से पहले कोई भी दुकान खुली नहीं मिली और हम जोशीमठ से भी आगे निकल गये और आखिरकार हमें एक जगह दो-तीन चाय की दुकाने इकठ्ठी खुली मिल गयी। ड्राईवर ने गाड़ी को साइड में लगा दिया और हम गाड़ी से बाहर निकले, जल्दी से चाय का आर्डर देकर, सभी लोग ब्रश वगैरह करने में वयस्त हो गये। चाय व बिस्कुटों का नाश्ता करने के बाद फिर से रुद्रप्रयाग की ओर चल दिये।

पिपलाकोटी पहुँचकर ड्राईवर ने गाड़ी को एक गाड़ी रिपेयर की दुकान के आगे रोक दिया और पूछने पर बताया कि गाड़ी की ब्रेक में कुछ दिक्कत है और ठीक करवाना जरुरी है। दुकान वाले ने बताया कि गाड़ी ठीक करने में आधा घंटा लग जायेगा। हम लोग आस-पास घुमते रहे और पहाड़ों की सुन्दरता को निहारते रहे। गाड़ी ठीक होने के बाद फिर से रुद्रप्रयाग की ओर चल दिये। सभी लोग काफ़ी थके हुए थे और रात को ठीक से सोये भी नहीं थे इसलिये सभी लोग गाड़ी में झपकियॉ लेते रहे । बाहर काफ़ी गर्मी हो रही थी और उसके कारण हमें गाड़ी में भी गर्मी लग रही थी। हमने ड्राईवर को बोल दिया कि रास्तें में कहीं भी झरना  दिखे तो वहीं गाड़ी रोक देना, अब नहाना जरुरी हो गया है। रुद्रप्रयाग से थोड़ा पहले ही एक झरना मिला और वहीँ ड्राईवर ने गाड़ी रोक दी और इससे पहले कि हम अपना सामान खोलकर कपड़े निकाल कर नहाने जाते , ड्राईवर जल्दी से नहाने चला गया और उसके आने के बाद गुप्ता जी को छोडकर ,हम सब लोग भी नहाने को चल दिये। गुप्ता जी की आँखों में दर्द था जो हेमकुन्ड आने के बाद से लगातार हो रहा था और जो शायद सुर्य की तीखी किरणों के बर्फ़ पर पड़ने के बाद निकलने वाली चमक के कारण था।

अलक्नन्दा

झरने के नीचे तसल्ली से नहाने के बाद सभी लोग काफ़ी तरोताजा महसूस कर रहे थे। गाड़ी में बैठकर फिर से वापसी यात्रा शुरु कर दी और थोड़ी ही देर में हम श्रीनगर पहुँच गये। श्रीनगर पहुँच कर वहाँ मौजुद एक गुरुद्वारे में लंगर खाने का निश्चय किया। गुरुद्वारा काफ़ी विशाल है और हेमकुन्ड आने-जाने वाले यात्रियों के लिये एक महत्त्वपूर्ण विश्राम स्थल है। गुरुद्वारे में बहुत से हेमकुन्ड यात्री थे, कुछ लोग दर्शन को जा रहे थे और कुछ लोग दर्शन करने के बाद वापिस लौट रहे थे। हमने भी वहाँ लंगर छका (खाया) और फिर चाय पी। लगभग तीन बज चुके थे और हम ऋषिकेश की ओर निकल दिये। रास्ते में एक बार रुद्रप्रयाग में चाय के लिये गाड़ी रुक्वाई और फिर से यात्रा जारी रखी।अब हम लोग ऋषिकेश में रात रुकने का प्रोग्राम बनाने लगे। सीटी आज रात ही अम्बाला चलने को कहने लगा लेकिन इस बात को किसी का समर्थन नहीं मिला क्योंकि मुझे,शुशील और सीटी को छोड़कर अन्य लोग पहली बार ऋषिकेश-हरिद्वार आये थे और यहाँ घुमना चाहते थे और दूसरा कारण ड्राईवर भी सुबह 6 बजे से गाड़ी चला रहा था और उसका आराम करना भी जरुरी था और यदि आज ही अम्बाला निकलते तो ड्राईवर को बिना रुके कम से कम पाँच-छ: घंटे और गाड़ी चलानी पड़ती। इसीलिए यह निर्णय लिया गया कि आज रात को ऋषिकेश में उसी जगह रुकेंगे जहाँ जाते हुए रुके थे और शाम को ऋषिकेश घूमने जायेंगे और यदि किसी को जल्दी अम्बाला पहुँचना हो तो उसे ऋषिकेश बस- स्टैंड पर उतार देंगे और वहाँ से वो बस पकड़ सकता है । ऐसा सुनकर किसी ने भी आज ही अम्बाला चलने की बात नही की। इस तरह बातचीत करते हुए लगभग छ: बजे हम ब्रह्मपुरी आश्रम पहुँच गये। वहाँ जाकर कमरा लिया और सारा सामान कमरे पर रखकर गाड़ी में ऋषिकेश घुमने चले गये।

 “उत्तराखंड का प्रवेश द्वार, ऋषिकेश जहाँ पहुँचकर गंगा पर्वतमालाओं को पीछे छोड़ समतल धरातल की तरफ आगे बढ़ जाती है। हरिद्वार से मात्र 24 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ऋषिकेश विश्व प्रसिद्ध एक योग केंद्र है। ऋषिकेन का शांत वातावरण कई विख्यात आश्रमों का घर है। उत्तराखण्ड में समुद्र तल से 1360 फीट की ऊंचाई पर स्थित ऋषिकेश भारत के सबसे पवित्र तीर्थस्थलों में एक है। हिमालय की निचली पहाड़ियों और प्राकृतिक सुन्दरता से घिरे इस धार्मिक स्थान से बहती गंगा नदी इसे अतुल्य बनाती है। ऋषिकेश को केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री का प्रवेशद्वार माना जाता है। कहा जाता है कि इस स्थान पर ध्यान लगाने से मोक्ष प्राप्त होता है। हर साल यहाँ के आश्रमों के बड़ी संख्या में तीर्थयात्री ध्यान लगाने और मन की शान्ति के लिए आते हैं। विदेशी पर्यटक भी यहाँ आध्यात्मिक सुख की चाह में नियमित रूप से आते रहते हैं

 ऋषिकेश पहुँच कर हम लक्ष्मण झुले की तरफ़ चले गये और वहाँ एक जगह गाड़ी को पार्क करने के बाद ,शाम 7:30 तक गाड़ी पर वापिस आना निशचित करके , घुमने निकल गये। गुप्ता जी हमारे साथ ऋषिकेश तो आये थे लेकिन घुमने नहीं गये । उनकी आँखे दुखने लगी थी और वो चश्मा लगाकर गाड़ी में ही बैठे रहे। सीटी भी,कल सुबह हरिद्वार में मिलने को कहकर, हरिद्वार में रहने वाली अपनी मौसी के घर चला गया। हम लोग लक्ष्मण झुले को पार करके दुसरी तरफ़ गंगा किनारे बने आश्रमों और मन्दिरो में घुमने लगे।

ऋषिकेश,लक्ष्मण झूले व आसपास के मदिंरो की कुतस्वीरें








भारी बारिश से बहता पानी

हनुमान मदिंर

गगां जी

 गर्मी काफ़ी ज्यादा थी और लग रहा था कि बारिश होगी। तभी अचानक आसमान काले-2 बादलों से भर गया और हम जल्दी से गाड़ी पर वापिस जाने लगे और अभी लक्ष्मण झुले को पार ही किया था कि जोर से बारिश होने लगी, जिसको जो सुरक्षित जगह मिली वो उसी तरफ़ भाग लिया। कुछ लोग किसी दुकान में रुक गये और कुछ लोग किसी दूसरी जगह्। लगभग 40-45 मिनटों तक जम कर बारिश हुई और इसके कारण सारे शहर का कचरा बहकर गंगा में जाते देखकर मन बहुत दुखी भी हुआ। जब बारिश थोड़ी हल्की हुई तो गुप्ता जी के मोबाइल पर फोन करके गाड़ी वहीं बुला ली और भागकर गाड़ी में बैठ गये और जब चलने लगे तो देखा कि शुशील गायब था,उसका मोबाइल भी बंद मिल रहा था। लगता था वो बारिश से बचने के लिये किसी दुसरी जगह पर रुका हुआ था तब हम गाड़ी वहीं ले गये जहाँ पहले ख़ड़ी की थी और उसका इन्तज़ार करने लगे और थोड़ी देर बाद शुशील गाड़ी पर पहुँच गया। तब तक काफ़ी अन्धेरा हो चुका था और हम वापिस ब्रह्मपुरी आश्रम की तरफ़ चल दिये लेकिन शायद भाग्य को कुछ और मंजुर था।
ऋषिकेश और ब्रह्मपुरी आश्रम के बीच में भारी बारिश की वजह से एक जगह भू-स्खलन हो गया था और रास्ता बंद हो चुका था।लगभग 100 फ़ीट सड़क पर पूरा पहाड़ी-मलबा बिखरा हुआ था जिसकी मोटाई पहाड़ी की तरफ़ 3-4 फ़ीट से लेकर खाई की तरफ़ लगभग 1 फ़ीट तक थी। थोड़ी ही देर में दोनो तरफ़ वाहनों की लम्बी कतारें लग गयी। हम लोग गाड़ी  से उतरकर पैदल ही आगे भू-स्खलन वाले स्थान की ओर चल दिये लेकिन गुप्ता जी हमारे साथ नहीं गये और वो गाड़ी में ही बैठे रहे। हेमकुन्ड से आने वाले कुछ मोटरसाइकिल सवार नौजवान यात्रियों ने ,खाई की तरफ़, सड़क से खुद मलबा हटाना शुरु कर दिया ताकि उनके मोटरसाइकिल निकलने का रास्ता तैयार हो जाये।उनको ऐसा करते देखकर बहुत से लोगों ने उनका साथ देना शुरु कर दिया और लगभग आधा घंटे की मेहनत के बाद मोटरसाइकिल निकलने का रास्ता तैयार हो गया लेकिन बड़ी गाड़ियाँ अभी भी निकल नहीं सकती थी। एक टाटा विग़ंर ने निकलने कि कोशिश की और उसकी गाड़ी बीच में ही फ़ंस गयी। तब तक पुलिस भी वहाँ पहुँच चुकी थी और मालूम हुआ कि जे-सी-बी थोड़ी ही देर में वहाँ पहुँचने वाली है। आधा घंटे बाद भी जब जे-सी-बी वहाँ नहीं पहुँची तो हमने पैदल ही ब्रह्मपुरी आश्रम चलने की सोची जिसकी दुरी यहाँ से एक किलोमीटर से भी कम थी। हमने सोनु और सतीश को गाड़ी पर भेजा और कहा कि गुप्ता जी को बुला लाओ और ड्राईवर को बोल देना कि जैसे ही रास्ता खुले वो गाड़ी लेकर आश्रम पर आ जाये।
 थोड़ी देर बाद दोनों वापिस आ गये और बोले कि हमने आते-जाते हुए सभी गाड़ियाँ देखी लेकिन हमें अपनी गाड़ी नहीं मिली। ऐसा सुनकर बाकी लोगों ने अन्दाजा लगाया कि गुप्ता जी गाड़ी लेकर ऋषिकेश के किसी होटल में ठहरने के लिये चले गये होगें।मैं और शुशील तटस्थ ही रहे क्योंकि वो हमसे पहले ही नाराज़ थे। वहां मोबाईल का नेटवर्क् भी नहीं था कि उनसे बात हो सके। आखिरकार हम सबने अपने जुते उतार कर हाथ में  पकड़ लिये और पैटं को घुटनो तक उपर करके मलबा पार किया। मलबे के छोटे-2 नुकीले पत्थरों ने पैरों का बुरा हाल कर दिया था। थोड़ी देर में हम रात  लगभग 9:30  बजे आश्रम पर पहुँच गये। आश्रम पहुँच कर हाथ-पैर धोकर लंगर में खाना खाया। हमारे खाना खाते ही रसोई-घर बंद हो गया और सफ़ाई शुरु हो गयी। हम भी अपने कमरे में पहुँचकर लेट गये और आपस में बातचीत  करने लगे।सभी लोग गुप्ता जी के ना मिलने से हैरान थे, तभी अचानक गुप्ता जी ने कमरे में प्रवेश किया, और गुस्से से पूछा कि मुझे वहाँ अकेला छोड़ कर क्यूँ आ गये? हमने उन्हे सब सबता दिया जिसे सुनकर वो सोनु और सतीश पर बरसे और उसके बाद शर्मा जी पर्। उनके सारे कपड़े कीचड़ से भरे थे और पूछ्ने पर बताया कि मलबा पार करते हुए वो मलबे में गिर गये थे और बड़ी मुश्किल से यहाँ पहुचे हैं । उनहोंने सबसे बात बन्द कर दी और कपड़े बद्लने के बाद भुखे ही सो गये क्योंकि तब तक रसोई-घर बंद हो चुका था और सब सेवक भी सो गये थे।


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Thursday, 21 March 2013

घाघंरिया - हेमकुंड साहिब - गोबिंद घाट

पिछ्ला भाग

भाग 6 : घाघंरिया - हेमकुंड साहिब - गोबिंद घाट ( Hemkund Sahib Yatra )


दूसरे दिन सुबह अंधेरे में ही उठकर नित्यकर्म से निवृत्त होकर और हाथ-मुहँ धोकर एक दुकान में चाय-बिस्कुट खाये और पिट्ठू लाद कर सूर्योदय से पहले ही घाघंरिया से हेमकुंड साहिब को चल पडे। हमें आज रात को  ही गोबिंद घाट पहुँचना था यानी कि कुल 7+7+13=27 किलोमीटर चलना था।
गोबिंद धाम और हेमकुंड साहिब के बीच दूरी लगभग सात किलोमीटर है हालांकि ऐसी खड़ी चढ़ाई चढ़ना बहुत मुश्किल है, लेकिन सपनों की जगह को देखने की इच्छा इस तरह के एक कठिन रास्ते पर चढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित करती हैपहले के दिनों में हेमकुंड साहिब तक पहुंचने के लिए कोई रास्ता नहीं था लेकिन अब हेमकुंड साहिब ट्रस्ट ने एक नियमित रूप से रास्ता बना दिया हैजब हम चढ़ाई शुरू करते हैं, तो यह इतना मुश्किल नहीं लगता है, लेकिन आधा किलोमीटर होने के बाद चढ़ाई इतनी खड़ी हो जाती है कि एक-2 कदम के लिए भी बहुत जोर लगता है लेकिन जहां चाह है, वहाँ एक राह हैगुरु गोबिंद सिंह के तपोभूमि 'को श्रद्धांजलि अर्पित करने की उत्सुकता सभी कठिनाइयों को आसान बनाती है उजाला होने तक करीब 1 किमी. चढ़ाई चढ़ ली थी। रास्ते में अन्य यात्री भी मिल रहे थे। थोड़ा और आगे चलते ही रास्ते के दायीं ओर एक विशाल झरना दिखाई दिया जिसमें पानी काफ़ी ऊंचाई से नीचे ग्लेशियर पर गिर रहा था और बहुत आवाज़ हो रही थी मानो झरना सबको अपनी मौजूदगी का एहसास दिला रहा हो। लेकिन यह झरना रास्ते से काफ़ी दुर था और वहाँ पहुँचना आसान नहीं था। गुरुद्वारा गोविंद धाम से श्री हेमकुंड साहिब की ओर तीन किलोमीटर के बाद मुख्य रास्ता दो भागों में बंट जाता है। दांयी तरफ़ वाले रास्ते से आगे हेमकुंड साहिब की ओर चले जाते  हैं तो बायीं तरफ़ वाला रास्ता विश्व प्रसिद्ध फूलों की घाटी की ओर जाता है।

एक झलक रास्ते की

ग्लेशियर दूर से

रास्ते से दूर एक झरना 

फूलों की घाटी : जब हम गुरुद्वारा गोविंद धाम से श्री हेमकुंड साहिब की ओर तीन किलोमीटर की यात्रा करते हैं तो आगे एक रास्ता बायीं तरफ़ विश्व प्रसिद्ध फूलों की घाटी की ओर जाता है। सन 1982 को इसे राष्ट्रिय-उधान के रूप में घोषित किया है इस घाटी में हजारों किस्मों की और तरह तरह के रंग और खुशबू के फूल उगते हैं । इस दुनिया में ऐसी और कोई जगह नहीं है जहां इतनी ज्यादा विभिन्न किस्मों के फूल स्वाभाविक रूप से विकसित होते हों। इन फूलों का मानवता की सहायता के बिना हो जाना एक सुखद घटना है। इन फूलों का जीवन उनकी प्रजातियों के अनुसार रहता है. कुछ फूल, खिलने के चौबीस घंटे के भीतर ही मुरझा जातें हैं और कुछ महीनों के लिए खिले रहते हैं। यहाँ सिर्फ इन फूलो को देखना चाहिए, छूने की मनाई है ,क्योकि जंगली प्रजाति होने के कारण कोई फूल जहरीला भी हो सकता है।

 फूलों की घाटी एक हिमनदों का गलियारा है जो लंबाई में आठ किलोमीटर और चौड़ाई में दो किलोमीटर है. यह समुद्र के स्तर से ऊपर 3,500 मीटर से लगभग 4000 मीटर के ढलानों पर है . अपने नाम के अनुसार ही, घाटी में मानसून के मौसम के दौरान विभिन्न किस्मों के फूलों  से कालीन बिछ जाता है. इस अनूठी पारिस्थिति में उगनेवाली कई प्रजातियों में से, हिमालय क्षेत्र की नीली अफीम, मानसून के दौरान  खिलने वाली प्रिमुला और आर्किड की असामान्य किस्मे दर्शकों के बीच सबसे लोकप्रिय हैं । भारत और अन्य देशों के वैज्ञानिक इन फूलों और जड़ी बूटियों पर उपयोगी दवाएं बनाने के लिए काम कर रहे है।

 इस फूलो की घाटी पर एक विदेशी महिला, मिस जोन्स ,जो लन्दन के शाही बागीचो की पर्यवेक्षक थी एक बार रानीखेत के पादरी की पत्नी मिसेस स्मिथ के साथ सन 1922 में भ्रमण करती हुई पहाड़ी पर चढकर इस घाटी में उतर आई थी , फूलों की इस घाटी पर वो इतना मोहित और मंत्रमुग्ध हो गयी थी कि उसने घाटी में फूलों का अध्ययन करने के लिए यहां रहने मन बना लिया। उसने प्रत्येक फूल का अध्ययन व विश्लेषण किया और सबको एक वनस्पति नाम दियाउसने सभी फूलों की विशेषताओं का उल्लेख किया और फूलों का एक विश्वकोश तैयार किया उसकी किताबों ने इस घाटी को विश्व प्रसिद्ध बना दिया। वह छह महीने के लिए इस घाटी में रुकी थी और उसे यह जगह इतनी पसंद आई की वो हर साल यहाँ आती रही एक दिन उसका पैर यही फिसल गया जिसके कारण उसकी म्रृत्यु हो गई आज भी इस महिला की यहाँ समाधि बनी हुई है। उसकी समाधि इस घाटी का एक और अभिन्न अंग बन गयी है

हम दांयी तरफ़ वाले रास्ते से आगे हेमकुंड साहिब की ओर बढ़ गए। जब हमने थोडी दूरी और खत्म की तो घने जंगलों का क्षेत्र समाप्त हो गया। पूरे रास्ते में कई दुकाने है जहां चाय मिलती है, कई लोग आलू के पराठों का मज़ा ले रहे थे एक पराठा 30 रु. में साथ में दही और बिसलरी बाटल 30 रु. में, चाय 15 रु.में! खाने का सामान काफी महंगा था । जैसे-2 हम उपर की तरफ़ जा रहे थे वैसे-2 खाने –पीने का सामान काफी महंगा होता जा रहा था और आखिर में एक जगह बिसलरी बाटल 70 रु. में, चाय 25 रु.में! थोडा और चलने के बाद ग्लेशियर शुरु हो गये।
ग्लेशियर पास से 

   घोड़े वाले यात्रियों को ग्लेशियर शुरु होते ही उतार देते हैं क्योंकि इससे आगे घोड़ों के फ़िसलने का खतरा बहुत बढ जाता है। नरेश सरोहा, हरिश गुप्ता और सीटी ने आज चढ़ाई के लिये घोड़े किये थे और वो हमसे आगे थे लेकिन ग्लेशियर पर चढ़ना शुरु होते ही वो तीनो हांफने लगे। हम लोगों ने उनको एक दुकान पर चाय पीते देखा लेकिन हम वहाँ रुके नहीं और लगातार आगे बढ़ते गये। अब आखिरी दो किलोमीटर ग्लेशियर पर ही चढ़ना था जो काफ़ी मुश्किलों भरा था। कई जगह तो दोनो तरफ़ 6 फ़ुट उँची बरफ़ की दीवार थी और बीच से ग्लेशियर को काटकर रास्ता बनाया हुआ था।

कुछ तस्वीरें ग्लेशियर से निक्लने की……






 सोनु और सतीश आज भी सबसे आगे थे और सबसे पहले  हेमकुंड साहिब पहुँच गये थे, उनके बाद मैं और शुशील सुंदर और आकर्षक दृश्यों को देखते हुए वहाँ पहुँचे हम सुबह 5:15 बजे निकले थे और 9:45 बजे तक हेमकुंड साहिब पहुँच गए ,कैसे पहुंचे ,यह हम ही जानते है।
हेमकुंड साहिब

 मैं हेमकुंड साहिब के सामने

शुशील हेमकुंड साहिब के सामने
हमने यहॉ पहुँचने से पहले रास्ते मे दुर्लभ ब्रह्म कमल भी देखा। वैसे तो कमल पानी में खिलने वाला एक फूल है लेकिन इस क्षेत्र में इस ब्रह्म कमल को चट्टानों पर पाया जाता है।
 ब्रह्म कमल

 ब्रह्म कमल

हेमकुंड साहिब:  
हेमकुंड साहिब समुद्र स्तर से 4630 मीटर (15210 फुट ) की ऊचाँई पर स्थित है। सिखों के पवित्र तीर्थ, हेमकुंड साहिब और झील  चारों तरफ़ बर्फ से ढकी सात पहाड़ियों से घिरे हुए हैझील के चट्टानी किनारे वर्ष के अधिकांश समय बर्फ के साथ ढके रहते है, लेकिन जब बर्फ पिघल जाती है,तो यहाँ पौराणिक पीले व  हरे, ब्रह्मा कमल (परमेश्वर के फूल) चट्टानों पर उग आते हैं ।यह स्थान अपनी अदम्य सुंदरता के लिये जाना जाता है और यह सिखों के सबसे महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है यह पवित्र स्थल गुरु गोबिंद सिंह जी के यहाँ आने से पहले भी तीर्थ माना गया है।इस पवित्र स्थल को पहले लोकपाल , जिसका अर्थ है 'विश्व के रक्षक' कहा जाता था। इस जगह को रामायण के समय से मौजूद माना गया है लोकपाल को लक्ष्मण के साथ संबद्ध किया गया है यह कहा जाता है कि लोकपाल वही जगह है जहां श्री लक्ष्मण जी, अपनी पसंदीदा जगह होने के कारण, ध्यान पर बैठ गये थे। इस जगह को सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह के साथ भी संबद्ध किया गया है ऐसा कहा जाता है कि अपने पहले के अवतार में गोविन्द सिंह जी ध्यान के लिए यहॉ आये थे. गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपनी आत्मकथा ‘बिचित्र नाटक’ में जगह के बारे में अपने अनुभव का इस तरह से उल्लेख किया है।

अब मै अपनी कथा बखानो तप साधत जिह बिधि मुहि आनो
हेम कुंट परबत है जहां सपत स्रिंग सोभित है तहां
सपत स्रिंग तिह नामु कहावा पंडु राज जह जोगु कमावा
तह हम अधिक तपसिआ साधी महाकाल कालिका अराधी ॥
इह बिधि करत तपिसआ भयो द्वै ते एक रूप ह्वै गयो


अब मैं खुद की कहानी कहता हुँ,जब मैं गहरे ध्यान में लीन था तब भगवान ने मुझे इस दुनिया में भेजा 
सात चोटियों के साथ लग रहा एक बहुत प्रभावशाली हेमकुंड नाम का पहाड़ है
यह पहाड़ सप्त (सात)- नुकीला पहाड़ है, जहां पांडवों ने प्रचलित योग किया था
वहाँ मैंने गहरे ध्यान में बहुत तपस्या की और महाकाल व काली की आराधना की।
इस तरह, मेरा  ध्यान  अपने  चरम  पर   पहुंच  गया   और     मैं  भगवान   के  साथ  एक   बन  गया

हेमकुंड संस्कृत ("बर्फ़") हेम और कुंड ("कटोरा") से व्युत्पन्न  नाम है हेमकुंड साहिब गुरुद्वारा एक छोटे से स्टार के आकार का है तथा सिखों के अंतिम गुरू , गुरु गोबिंद सिंह जी, को समर्पित है। श्री हेमकुंड साहिब गुरूद्वारा के पास ही एक सरोवर है। इस पवित्र जगह को अमृत सरोवर (अमृत का तालाब) कहा जाता है। यह सरोवर लगभग 400 गज लंबा और 200 गज चौड़ा है यह चारों तरफ़ से हिमालय की सात चोटियों से घिरा हुआ है। इन चोटियों का रंग वायुमंडलीय स्थितियों के अनुसार अपने आप बदल जाता है। कुछ समय वे बर्फ़ सी सफेद, कुछ समय सुनहरे रंग  की, कभी लाल रंग की और कभी-कभी भूरे नीले रंग की दिखती हैं।

 समुद्र तल से 15210 फुट की ऊंचाई पर स्थित इस अमृत सरोवर की एक झलक पाने के लिए हम हेमकुंड साहिब गुरूद्वारा के पीछे की तरफ़ गये। हिमालय की चोटियों से घिरी झील लगभग पूरी तरह जमी हुई थी सिर्फ़ किनारों के पास ही पानी था और उस पानी के ऊपर भी बर्फ़ तैर रही  थी । पुरा द्र्श्य इतना सुन्दर था कि उसे शब्दों में बयान करना बहुत मुश्किल है। शायद नीचे दी हुई तस्वीरों से कुछ बयां हो जाये।







ठंड के मारे हमारा वैसे ही बुरा हाल था इसलिये हमने वहाँ नहाने का विचार त्याग दिया और सिर्फ़ हाथ मुँह धोने का निश्चय किया। जैसे ही हमने पानी में हाथ डाला, सरोवर के पानी ने कयामत ढाह  दी,एकदम बर्फ़ सा  पानी, क्योंकि किनारों पर भी बर्फ़ थी और सरोवर में भी बर्फ़। लेकिन हमने भी हार नही मानी और तसल्ली से मुँह हाथ धो लिये और गुरूद्वारे की तरफ़ चल दिये। चारों तरफ़ बर्फ़ होने से चलना भी मुश्किल हो रहा था और लोग बार-बार फ़िसल कर गिर रहे थे। हम लोग सावधानी से चलते हुए गुरूद्वारे में प्रवेश कर गये।
अब कुछ तस्वीरें हेमकुंड साहिब गुरूद्वारे के अदंर की……






गुरूद्वारे में प्रवेश करते ही मन को काफ़ी शकुन मिला। गुरूद्वारे में गुरुबानी का पाठ चल रहा था और अन्दर का वातवरण गर्माहट से भरा था। पूरे गुरूद्वारे में कम्बल बिछे हुए थे तथा काफ़ी कम्बल तीर्थयात्रियों के ओढने के लिए भी रखे हुए थे। हम भी मात्था टेकने के बाद वहाँ कम्बल ओढ कर बैठ गये और गुरुबानी का पाठ सुनने लगे। हम आधा घंटा वहाँ बैठे रहे और जब सब साथी गुरूद्वारे में पहुँच गये तो हम प्रशाद लेकर वहाँ से बाहर आ गये। बाहर निकलते ही लगंर में चाय और खिचडी का गरम-2 प्रशाद मिल रहा था, प्रशाद ग्रहण करके गुरूद्वारे के साथ ही मौजूद लक्ष्मन मन्दिर में गये और फिर वापसी के लिये निकल लिये। हमे अभी 19-20 किलोमीटर नीचे उतरना था और आज शाम को गोबिन्द घाट पहुँचना था।



लक्ष्मन मन्दिर
मैं और शुशील सबसे पहले चले और हमारे पीछे -2 सोनु एवं सतीश की जोड़ी आ रही थी, बाकी साथी उनसे पिछे थे। हम काफ़ी तेजी से नीचे उतरते गए और लगभग दो घंटे में घाघंरिया पहुँच गये और वहाँ पहुँच कर मैंने और शुशील ने गुरुद्वारा गोविंद धाम में लगंर खाने का निशचय किया। हम दोनो गुरुद्वारे में चले गये और थोड़े इन्तज़ार के बाद लगंर हाल में प्रवेश कर गये। लगंर खाने के बाद हमने गुरुद्वारे से चाय भी पी ली। इस इन्तज़ार और खाने-पीने की प्रकिया में एक घंटा लग गया। कोई अन्य साथी हमें गुरुद्वारे में नहीं मिला था इसलिये हमने अन्दाजा लगाया कि सभी लोग आगे जा चूके होंगे  । खाने-पीने और थोड़े आराम के बाद हम तरोताजा महसुस कर रहे थे इसलिये एक बार फिर तेजी से नीचे उतरने लगे। सुंदर और आकर्षक दृश्यों को देखते हुए ,प्रकृति का आनंद लेते हुए और खाते-पीते हम गोबिन्द घाट कि ओर बढ़ते गये और लगभग शाम 6:30 बजे गोबिन्द घाट पहुँच गये और आज 27 किलोमीटर की यात्रा पूरी की।आज हमारे उतरने की औसतन गति तीन किलोमीटर प्रति घंटा थी।



 गोबिन्द घाट पहुँच कर हमें सोनु एवं सतीश अलकनंदा के पुल पर बैठे मिले। वे हमसे 10 मिनट पहले ही पहुँचे थे लेकिन बाकी लोग अभी पिछे ही थे। हमने गोबिन्द घाट गुरूद्वारे में ठहरने के लिये कमरे का पता किया लेकिन सभी कमरे भरे हुए थे। वहाँ मौजूद कुछ अन्य होटलों में भी यही हाल था , तीर्थयात्रियों की अधिकता के कारण सभी होटल पूरी तरह से भरे हुए थे। जब यात्रा सीजन अपने चरम पर हो , उस समय यात्रा करने का यही नुक्सान रहता है। सभी चीजें आपको दुगने-तिगने दाम पर मिलती हैं और कई बार मिलती ही नहीं । हम चारों  थक हार कर,अलकनंदा के पुल के पास बैठ अपने बाकी साथियों का इन्तज़ार करने लगे। गुप्ता जी और नरेश सरोहा ने वापिसी के लिये भी घोड़े किये थे, लेकिन इसके बावज़ूद वे काफ़ी लेट पहुँचे। जब सभी लोग आ गये तो एक-दो जगह और कमरे का पता किया लेकिन नतीज़ा वही रहा। फिर हम सब अपनी गाड़ी के पास पहुँचे और अपने-2 पिठू बैग गाड़ी में रखकर खाना खाने के लिये एक भोजनालय में गये। जब खाना खा चूके तो फिर वही समस्या कि अब सोयेंगे कहाँ? शर्मा जी, गुप्ता जी, सोनु और नरेश सरोहा तो सोने के लिये गाड़ी में चले गये। दो लोग पिछली सीटों पर ,एक बीच की सीट पर और एक आगे ड्राईवर के साथ वाली सीट पर सो गये। एक बंद चाय की दुकान के बाहर बरामदे में दो तख्त बिछे थे, एक पर सीटी अपने बेटे के साथ और दुसरे पर शुशील सो गया। बस मैं और सतीश बच गये थे , हमने गाड़ी से दरी (carpet) निकाली (जिसे हम अम्बाला से साथ लाये थे) और उसे पार्क कि हुई गाड़ीयों के बीच एक खुली जगह देख कर बिछा लिया और उस पर लेट गये लेकिन अधिक थकावट व काफ़ी गरमी के कारण नींद नहीं आ रही थी, उस पर मच्छरों ने काट-2 कर बुरा हाल कर दिया। काफ़ी देर मच्छरों से मुकाबला करते-करते जैसे ही नींद की झपकी आई तो बारिश शुरु हो गयी। हमारे बाकी साथी तो छत के नीचे थे और सो रहे थे पर हम दोनो खुले में थे इसलिये दोनो उठ कर बैठ गये, अब कहाँ जायेगे ? घुमक्कडी कि एक और परीक्षा … तभी बारिश बंद हो गयी लेकिन बादलों को देखकर लग रहा था कि बारिश फिर आयेगी। हमारे पास कोई दूसरा उपाय नहीं था इसलिये हम फिर वहीं सो गये। लगभग आधा घंटे के बाद जोर से बारिश शुरु हो गयी और हम अपनी दरी उठाकर, बारिश में ,खानाबदोकी तरह, किसी सुरक्षित स्थान को तलाशने लगे और एक चार मजिंला भवन, शायद होटल था, जिस की पार्किंग उपर सड़क के साथ थी और कमरे नीचे कि ओर थे, के बरामदे में पहुँच गये। रात के दो बज रहे थे और सब सो रहे थे। हमने भी बरामदे में अपनी दरी बिछाई और सो गये।  

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