पंचम केदार -कल्पेश्वर
यात्रा तिथि : 1 अक्टूबर 2017
पिछले
पार्ट में आपने पढ़ा कैसे ख़राब रास्ते से होते हुए हम शाम को 6 बजे उर्गम घाटी
पहुँचे और हलके अँधेरे में ही कल्पेश्वर मंदिर की ओंर चल दिए और जब मंदिर के काफी पास
पहुँच गए तो अचानक रास्ता झाड़ियों में लुप्त हो गया । अब उससे आगे ...
नदी की बढती आवाज से इतना तय था कि हम इसके काफ़ी पास तक पहुंच चुके हैं और यहीं-कहीं
से हमें नीचे नदी के तट पर उतरना था लेकिन अँधेरा होने के कारण रास्ता नहीं मिल
रहा था । नदी के दूसरी तरफ काफी ऊपर एक छोटा सा बल्ब जग रहा था । हमने अनुमान
लगाया कि जरूर ये मंदिर ही होगा लेकिन ऐसे बिना कन्फर्म किये वहाँ कैसे जाएँ ? आस
पास कोई नहीं था जिससे कुछ पूछते । थोड़ा पीछे आये ,वहाँ एक जगह काफी सरिया ,बजरी
और दूसरी निर्माण सामग्री गिरी हुई थी, उसके पास ही एक छोटा सा लेबर का कमरा भी था
, हम वहीँ पहुँच गए । कमरे में कुछ बिहारी मजदुर खाना बना रहे थे । उनसे पूछा तो उन्होंने
बताया कि जहाँ रास्ता समाप्त हो रहा है वहीँ से आपको नीचे नदी तक उतरना है ,फिर
पुल से नदी को पार कर ऊपर जाना है और जहाँ बल्ब जल रहा है वही मंदिर है। जब उनसे
पूछा कि तुम यहाँ किस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हो तो उन्होंने बताया की आगे नदी पर
अब पक्का RCC पुल बन रहा है । पहले जो लोहे वाला पुल था वो बाढ़ में बह गया था ,अब
लकड़ी का अस्थायी पुल बना है । चलने लगे तो वो बोले , ध्यान से गुजरना , पुल कमजोर
है अगर गिर गए गए तो सीधा !!!!!!!!!!!!!!
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कल्पेश्वर महादेव |
हम दोबारा वहीँ पहुँचे जहाँ पगडण्डी खतम हो रही थी ,टोर्च की रोशनी से झाड़ियों
में रास्ता खोजने लगे . साइड से एक छोटा सा रास्ता नीचे उतर रहा था ,उसी पर चल दिए
.इस रास्ते पर काफी फिसलन थी ,अवश्य ही दिन में यहाँ बारिश हुई होगी । धीरे-धीरे
सब नीचे उतर गए और पीछे दिख रहे लकड़ी के पुल की तरफ चल दिए । नदी भी पूरे वेग से
बह रही थी ,यह नदी हिरणावती और कल्पगंगा के नाम से जानी जाती है और आगे हेलंग में जाकर
अलकनन्दा में मिल जाती है। तीखी ढलान और रात का समय होने के कारण नदी का बहुत शोर
हो रहा था । इसकी गर्जना रात की ख़ामोशी को भंग कर रही थी, पास से ही बड़े झरने की काफी
आवाज आ रही थी । कुल मिलाकर डरावना माहौल बना हुआ था। यहाँ रास्ता भी फ़िसलन वाले उबड़
खाबड़ पत्थरों से होकर था । बचते बचाते सभी लोग लकड़ी के पुल के पास पहुँच कर रुक गए
और पहले आप -पहले आप के हरयाणवी संस्करण ,अरे पहले तू जा , पहले तू जा करने लगे ।
फिर सबने मिल के मुझे आगे कर दिया और कहने लगे सहगल साहब ने ये प्रोग्राम बनाया है
और वो ही टीम लीडर है इसलिए सबसे पहले पुल पर वो ही पार करेगा । मैंने भी मन ही मन
ये सोचा दिन में पचासों लोग यहाँ से निकलते होंगे इसलिए कोई ज्यादा खतरा नहीं है ।
मैंने अपने साथियों से कहा की पुल को हम एक-एक करके पार करेंगे और फिर ‘डर के आगे
जीत है’ का नारा लगा और मन ही मन ‘भोले नाथ रक्षा करना’ कहता हुआ मैं पुल पर चढ़ गया
। पुल में काफी लचक थी और यह हिल भी रहा था लेकिन सावधानी से चलते हुए मैं इसे पार
कर गया । मेरे जाने के बाद सभी एक-2 कर पुल के पार आ गए और थोड़ी ऊंचाई पर स्तिथ मंदिर
की तरफ चल पड़े । आगे भी रास्ता साफ़ नहीं था लेकिन जैसे तैसे ,फिसलते –गिरते
आख़िरकार मंजिल पर पहुँच ही गए । मंदिर पहुँचते ही सबने जोर का जयकारा लगाया । हमारी
आवाज सुनकर पंडित जी ,चाहो तो पुजारी जी कह लो , अपने कमरे से बाहर आ गए और इस समय हमें यहाँ देखकर वो काफी हैरान हुए और
फ़िर हमें अन्दर ले गए और मंदिर के बारे में बताने लगे । पंडित जी
ने हमें पवित्र
कुंड से चरणामृत
दिया और फिर सबको प्रसाद भी
दिया और फिर बाहर
आकर चट्टान पर उभरी हुई जटाएं भी दिखाई ।
मंदिर के साथ ही एक छोटे से कमरे में
एक अन्य बाबा जी ने डेरा लगाया हुआ था। हम सब उनके कमरे में प्रवेश कर गए. उस समय
बाबा जी अपने रात के खाने के लिए चुलाई का साग काट रहे थे । हमें देखकर उन्होंने हम
सबको बैठने को कहा और हमसे बातचीत करने लगे । बाबा जी किशोर अवस्था में ही सन्यास
लेकर मध्य प्रदेश से यहाँ आ गए थे और पिछले कई सालों से यहाँ पर हैं । उन्होंने
बताया कि सर्दियों में खुद को कई दिन तक कमरे में बंद कर लेते हैं और तप में मगन
हो जातें हैं । उनसे बहुत सी बातें चलती रही फ़िर समय ज्यादा होते देखकर हम उनसे
विदा लेकर रात आठ बजे के लगभग वापिस ल्यारी की तरफ चल दिए ।
कल्पेश्वर
समुद्र तल
से लगभग 2200 मीटर
की ऊंचाई
पर स्थित
है। पंच
केदार में इसका पाँचवा स्थान है । यहाँ
भगवान् शिव
की उलझी
जटाओं को
पूजा जाता
है। एक छोठी
सी गुफा
के ऊपर भगवान् शिव
की जटाएं
स्वयंभू विराजमान
हैं। बड़ी
सी चट्टान
पर जटाओं
की उभरी
आकृति साफ़
दिखायी पड़ती
है। इसी
चट्टान के
साथ में ही एक
पवित्र कुंड
है, जिसका
जल निरंतर
बहता रहता
है। कल्पेश्वर की खास
बात यह भी है कि अन्य केदारों की भांति इसके कपाट सर्दियों में बन्द नहीं होते।
यह अधिक ऊंचाई पर नहीं है इसलिए यहाँ बर्फ भी ज्यादा नहीं पडती इसलिए यह मंदिर पूरे
साल खुला रहता है।
एक दंत कथा के
अनुसार किसी समय
यहाँ पर
कल्पवृक्ष हुआ
करता था
जिसके नीचे
बैठकर दुर्वाषा
ऋषि तप
किया करते
थे। पुराणों
के अनुसार
भगवान् इंद्र
ने दुर्वाषा
ऋषि के
श्राप से
मुक्ति पाने
के लिए
यहीं पर
भगवान् शिव
को प्रसन्न
करने के
लिए तप
किया था।
जिसके पश्चात
उनको कल्पतरु
प्राप्त हुआ
था।“
कल्पेश्वर
मंदिर की अन्य केदार की तरह पांडवो से जुडी एक कहानी भी है जिसे मैं अगले भागों
में होने वाली चौथे केदार रुद्रनाथ के दर्शन के साथ ही बताऊँगा .कहते हैं कि इस
मंदिर का निर्माण भी पांडवों ने ही किया था . अब कल्पेश्वर मंदिर की देख- रेख बद्री –केदार समिति करती है . बाकि सभी केदार और
बद्रीनाथ जी का सञ्चालन भी यही समिति करती है . यहाँ जो पुजारी जी हैं वे उसी
समिति द्वारा नियुक्त हैं लेकिन जो बाबा जी हैं उनका इस समिति से सम्बन्ध नहीं है
लेकिन उन्हें यहाँ पूजा-पाठ के लिए एक कमरा समिति द्वारा दिया हुआ है ।
हम 6 बजे ल्यारी से कल्पेश्वर के लिए निकले थे । आने -जाने में 2 घंटे से कुछ
अधिक समय लगा और आधा घंटा हम मंदिर में भी रुके । लगभग पौने नौ बजे हम ल्यारी से
हेलंग के लिए वापिस चल पड़े । वापसी में लगभग सारी उतराई होने से ज्यादा दिक्कत
नहीं हुई लेकिन फिर भी गाड़ी धीरे ही चलानी पड़ी। रात ठीक 9:15 बजे हम हेलंग पहुँच
चुके थे । यहीं पर यह तय कर लिया कि अभी एक घण्टा और यात्रा जारी रखते हैं उसके
बाद जहाँ भी रुकने औऱ खाने को मिल जाएगा वहीं रुक जाएंगे । गौरव को बाइक गाड़ी के
साथ ही रखने को कहा ताकि दिन की तरह अब बिछड़ने की संभावना न रहे । रात का समय होने
से ट्रैफिक काफी कम था औऱ सड़क भी यहां अच्छी थी । लगभग एक घण्टे के बाद हमने गरुड़
चट्टी के पास एक भोजनालय खुला देखकर गाड़ी रोक ली । उसके ऊपर ही होटल भी था ,पहले
होटल वाले से बात की । एक चार बेड वाला कमरा मिल गया । खाने के लिए नीचे भोजनालय
में गये तो वहाँ सब बंद हो चूका था । मालिक से बात की तो उसने बताया कि इस समय अब
खाने को कुछ नहीं है ,उसके वर्कर भी जा
चुके हैं ,कोई बनी हुई सब्जी भी नहीं बची और रोटी बनाने की अब उसमे हिम्मत नहीं है
। यह सुनकर आगे का काम हमने सुशील को सौंप दिया और थोड़ी ही देर में सुशील की
सेटिंग के बाद वो दाल चावल बनाने को तैयार हो गया लेकिन एक शर्त पर । शर्त ये की दाल
चावल बनवा कर कमरे पर भेज देगा, अब उसमे परोसने की हिम्मत नहीं है । शुशील ने कहा
ठीक है लेकिन साथ में हरी मिर्च और प्याज भेज देना । सुशील दिन में खाने के समय भी
हरी मिर्च मांगता रहा था लेकिन पूरे ढाबे में हरी मिर्च थी ही नहीं । यहाँ भी उसे हरी
मिर्च नहीं मिली . खाना तैयार होने के बाद ढाबे वाले ने कटे हुए प्याज और प्लेटों
के साथ दोनों कुकर ही कमरे पर भिजवा दिए और खुद ढाबा बंद कर सोने चला गया । अब तक रात
के 11 बज चुके थे ,हमने भी घर से लाया हुआ आचार निकाला और उसके साथ दाल चावल को निपटाया । थोड़ी
देर एक दुसरे की टांग खिंचाई की और फिर जल्दी ही नींद की आगोश में चले गए ।
अभी बस इतना ही .बाकि जल्दी ही अगले पार्ट में, तब तक आप यहाँ तक की तस्वीरें
देखिये .
इस यात्रा के पिछले भाग पढ़ने के लिए नीचे लिंक उपलब्ध हैं .
तीसरा भाग : कर्ण
प्रयाग और उर्गम घाटी
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हम रात को नदी और पुल का चित्र नहीं ले पाए थे .ये चित्र बीनू कुकरेती के सौजन्य से |
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कल्पेश्वर जाते हुए रास्ते में एक जलधारा |
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मंदिर |
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बाबा जी |
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होटल में रूम सर्विस |
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कल्पेश्वर -विकिपीडिया से |
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यह चित्र -सहयात्री गौरव चौधरी के कैमरा से |
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यह चित्र -सहयात्री गौरव चौधरी के कैमरा से |
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यह चित्र -सहयात्री गौरव चौधरी के कैमरा से |
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यह चित्र -सहयात्री गौरव चौधरी के कैमरा से |
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यह चित्र -सहयात्री गौरव चौधरी के कैमरा से |
बहुत बढ़िया सहगल साहब...
ReplyDeleteपहाड़़ों मे रात होने से पहले खाना खा लिया करो...ठहरने को जगह तो मिल ही जायेगी।
जय भोलेनाथ
धन्यवाद अनिल भाई .
Deleteजय भोले की .
बढ़िया यात्रा वर्णन अवं शानदार तस्वीरें .
ReplyDeleteधन्यवाद राज़ जी .
DeleteExciting and intimidating post with lot of beautiful pictures . Om Namah Shivaya . Always stay blessed.
ReplyDeleteBohat hi khub,Sabhi photos bohat sundar.
ReplyDeleteThanks Charu jee.
Deleteजय भोलेनाथ.
ReplyDeleteThanks Susheel jee.
Deleteus pul ko paar krna or paani ki awaj.... aaj fir se yaad aa gya .bahut acha varnan kiya
ReplyDeleteThanks gaurav bhai.
DeleteSehgal ji kahin aap sirf setting karne ki vajah se hi to mujhe sath nhi le jate ...lekin sach me ek yaadgar yatra thi.. Bahut sundar varnan..
ReplyDeleteभाई तू कुछ भी समझ ले .पर तेरा साथ अच्छा लगता है . आता रहा कर . नॉलेज बढेगी ;)
DeleteNice informative post. Jai Bhole ki.
ReplyDeleteधन्यवाद अजय भाई .जय भोले की .
Deleteखराब रास्ते से होकर बाबा के दर्शन करा ही दिए। जय बाबा की, बढिया रोमांचक यात्रा रही यह आपकी
ReplyDeleteधन्यवाद सचिन भाई . जय भोले की .
Deleteरात में ल्यारी से कल्पेश्वर और नदी का लकड़ी का पुल पार करना और रात का डरावना माहौल । बहुत ही रोमांचक ...
ReplyDeleteधन्यवाद रीतेश जी .जय भोले नाथ .
Deleteउत्तम लेख, फोटो भी शानदार आए है, लेकिन रात में ऐसे नदी के पुल पर जाना खतरनाक रहता है ! आप सुबह भी ये मंदिर देख सकते थे तब शायद आपको और सुन्दर नज़ारे दिखाई देते !
ReplyDeleteधन्यवाद प्रदीप जी .सुबह तक रुकते तो काफी लेट हो जाते इसलिए रात में ही दर्शन कर लिए .
Deleteरात को इतने खतरनाक रास्ते से नीचे उतरना ओर इतने बेकार पुल से जाना फिर वापस आना बहुत साहस का काम है👍 अगर मैं होती तो कदापि न जाती☺☺☺
ReplyDeleteहा हा हा .बुआ जी आप होते तो रात को क्यूँ जाते .हमें समय की थोड़ी कमी थी इसीलिए रात को दर्शन कर लिए .
Deleteआपके द्वारा दी गई जानकारी हमेशा ही ज्ञानवर्धक होती है इसे भी देखे उत्तराखंड में पंच केदार
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