रुद्रनाथ यात्रा : पुंग बुग्याल से पनार
पुंग बुग्याल (2285 मीटर ) में हम उम्मीद से पहले पहुँच गए । यहाँ आने में
हमें दो घंटे से भी कम समय लगा । 9 बजे सगर(1700 मीटर) से चले थे ,15-20 मिनट
चांद्कोट भी रुके और अब ठीक ग्यारह बजे हम पुंग बुग्याल में थे । पिछले दो घंटे
में हम लगभग 600 मीटर ऊपर आ गए थे । पुंग बुग्याल में झोपडी नुमा एक दुकान है जहाँ
खाने-पीने और रात रुकने की सुविधा भी है। स्थानीय भाषा में इसे छानी बोलते हैं । छानी
का मालिक बाहर ही खड़ा था हमें देखकर बड़ा खुश हुआ और आव-भगत में लग गया। लम्बा
चौड़ा मखमली घास का मैदान देखकर हम भी बाहर धुप में ही लेट गए । तब तक दुकान वाला
पानी ले आया । सब ने पहले पानी पिया और फिर वह हमसे खाने के बारे में पूछने लगा ।
हमारी खाने की इच्छा नहीं थी फिर भी उसके आग्रह करने पर गौरव और आकाश ने अपने लिए
मेगी बनवा ली। सुशील भी बोल उठा कि भाई जी, हरी मिर्च है तो मेरी मैगी भी बना दो नहीं तो
रहने दो ! लेकिन अफसोस हरी मिर्ची यहाँ भी नहीं मिलेगी। दोनों उदास ,सुशील हरी
मिर्च न मिलने से ,दुकानदार एक मैग्गी का आर्डर कैंसिल होने से । थोड़ी ही देर में
मैग्गी और चाय बन कर आ गई। गौरव और आकाश ने मैग्गी निपटाई फिर हम सब ने चाय। थोड़ी
देर सुस्ताए और फिर आगे की लंबी यात्रा के लिए चलने को तैयार हो गए।
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पनार बुग्याल ,देवता और छानी
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इस छानी के मालिक का नाम देवेंद्र
बिष्ट था या शायद कुछ ऐसा ही अब अच्छे से याद नहीं है चलने लगे तो उसे पूछा कि
अगला पड़ाव कितनी दूर है उसने बताया यहां से मौलिखरक पूरे 5 किलोमीटर दूर है । इस
दूरी के बारे में मैंने कहीं 4 किलोमीटर पड़ा था तो कहीं 5 किलोमीटर पर असल में यह
कितना है यह तो स्थानीय लोग बेहतर जानते हैं । आज हम जाएंगे तो कुछ अंदाजा हो
जाएगा। हम यहां 11:00 बजे पहुंचे थे और ठीक 11:30 बजे यहां से निकल लिए। थोड़ी दूर
तक समतल घास के ढ़लान हैं। पुंग के आखिरी कोने से आगे एकदम खड़ी चढ़ाई है।
बांझ-बुरांश का घना जंगल है । मुझे इस तरह
के जंगल में चलना बेहद पसंद है, ऐसे जंगल
के कुछ फायदे हैं, तेज धूप होने के बावजूद आपको धूप नहीं लगती और ठंडी हवा होने से
चढ़ते हुए आप को ज्यादा पसीना भी नहीं आता। आप आराम से ठंडी-२ छांव में चल सकते हो।
लेकिन घने जंगल में जंगली जानवर का भय भी रहता है, वैसे दिन के समय जंगली जानवर
रास्ते से दूर ही रहते हैं, लेकिन रात को अक्सर खाने की तलाश में वह रास्ते पर आ
जाते हैं इसलिए इन रास्तों पर रात को कोई नहीं निकलता।
पुंग बुग्याल से निकलने के थोड़ी देर बाद ही, लगभग एक- डेढ़ किलो मीटर आगे , रास्ते
में एक बड़ी जलधारा भी मिली, इसमें काफी पानी था- बिलकुल साफ-सुथरा स्वच्छ जल। कुछ
देर तक रास्ता इसके साथ साथ ही रहा. थोड़ा आगे बढ़े तो यही जलधारा एक छोटे से झरने
का रूप ले रही थी। यहाँ रुक कर फोटो
खींचने लगे ।.इसके आसपास काफी तितलियों के कई झुंड थे लेकिन सभी तितलियां ब्राउन कलर की ही थी। जलधारा को पुल से पार
करने के बाद थोड़ा आगे बढ़े तो रुद्रनाथ भंडारा
समिति का एक बैनर लगा हुआ मिला जिस पर लिखा था, यहां से 6 किलोमीटर आगे कोई पानी
नहीं है- पानी यहीं से भर ले। हमने भी अपनी पानी की बोतलें पहले ही भर ली थी। यहाँ
जंगल में मुख्यत बांझ-बुरांश के पेड़ है ,कुछ कीकर के पेड़ भी हैं और भी कई किस्म के पेड़ लगे हैं पर मुझे उनके
नाम नहीं मालूम। जंगल इतना घना है कि सूरज की रोशनी नीचे नहीं पहुंच पाती, पेड़ों
के तने काई से भरे हुए हैं, रास्ते के दोनों तरफ भी काफी काई जमी हुई है। हमें
चलते हुए ध्यान रखना पड़ रहा है कहीं पर काई पर पैर ना पड़ जाए, नहीं तो फिर फीसलते
हुए देर नहीं लगेगी। लगातार कैंचीनुमा चढ़ाई का रास्ता है ,चलते-चलते जब निगाह
नीचे की तरफ जाती है तो पुंग घने जंगल के बीच एक गोल कटोरेनुमा सा नजर आता है।
हमारे ग्रुप में गौरव का मौसेरा भाई सागर सबसे युवा है, मात्र 18 साल का। शुरू
में तो वो सबसे आगे भाग रहा था लेकिन पुंग
बुग्याल के बाद जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे, उसकी चाल धीमी पड़ने लगी। जिंदगी में
पहली बार किसी ट्रैक पर आया था और वो भी सीधा रुद्रनाथ, जिसकी चढ़ाई को पंचकेदार
में सबसे कठिन माना जाता है। मैंने भी इसकी चढ़ाई के बारे में बहुत कुछ सुना हुआ था। एक
स्थानीय कहावत है कि जर्मन
की लड़ाई और रुद्रनाथ की चढ़ाई को जीतना आम लोगों के बस की बात नहीं। यानि रुद्रनाथ की चढ़ाई बड़ी कठिन है। जैसे
जैसे हम आगे बढ़ रहे थे, चढ़ाई तीखी होती जा रही थी और सागर के चलने की गति धीमी
पड़ रही थी। हम में से एक साथी हमेशा उसके साथ ही रहा ताकि वह पीछे अकेला न रह जाए।
बाकी साथी भी जब आगे निकल जाते तो रुक जाते, उनके आने का इंतजार करते,फ़िर इकट्ठे
होकर आगे चल पड़ते। अभी काफी दूर जाना था था इसलिए धीरे-धीरे एक गति बनाते हुए
चलते रहें। थोड़ा आगे चलते ही हमें एक गायों का बड़ा झुंड नीचे की तरफ तेजी से
उतरता हुआ मिला रास्ते पर हमें देख कर झुंड रुक गया और इधर उधर भागने लगा। हम सभी
रास्ते से हटकर एक साइड में हो गए ताकि झुंड
आराम से निकल जाए। हमें रुका देख कर कुछ गाय तो हमारे पास होकर निकल गई और कुछ
साइड से छलांग लगाते हुए नीचे उतर गई।
थोड़ा और आगे चलने पर हमें एक लड़का रुद्रनाथ के दर्शन कर वापिस आता हुआ मिला
उससे बातचीत हुई, पूछा अभी मौलिखरक कितनी दूर है उसने बताया अभी हमको एक-ढेड़ घंटा
और लग जाएगा। वह लड़का उत्तराखंड का ही था। गोपेश्वर के पास किसी गांव में रहता था।
उसने हमसे पूछा कि आप कहां से आए हो ? जब हम ने जवाब दिया कि हम हरियाणा से हैं तो
बड़ा हैरान हुआ और बोला बड़ी खुशी हुई आप लोगों को देखकर क्योंकि हरियाणा के लोग
घूमते नहीं है ,बहुत ही कम लोग ट्रैक् पर जाते हैं चलो अच्छा है हरियाणा के लोगों
ने भी घूमना शुरू दिया है । हम भी उसकी बात से सहमत थे । थोड़ी सी बातचीत के बाद
वो नीचे की ओर उतर गया और हम ऊपर की तरफ़ चल पड़े। ऐसे ही धीरे-धीरे बिना बैठे ,
खड़े-खड़े विश्राम करते, आगे बढ़ते रहे । ऐसे ही लगातार चलते ,जंगल के नजारों का
आनंद लेते हुए, झींगुर की आवाज से अपनी ताल मिलाने की असफल कोशिश करते, लगभग दोपहर 2:45 बजे हम मौलिखरक पहुंच गए ।
पुंग बुग्याल से हमें यहाँ आने में तीन घंटे और 15 मिनट लगे । इस बीच में हमने
कहीं भी लम्बा ब्रेक नहीं लिया । मेरे अनुमान के अनुसार यह दुरी 5 किमी से अधिक है
। मुझे औसतन एक किलोमीटर के लिए आधा घंटा लगता है । यह कई बार जांचा परखा हुआ है
उस हिसाब से यह दुरी 6 किमी के आसपास होनी चाहिए ।
मौलिखरक में भी एक छानी है । इसकी बायीं तरफ यहाँ के स्थानीय इष्टदेवता ‘बूढ़देवा’ का मन्दिर है। हम छानी में पहुंचते है, इसके
तीन पार्टीशन हैं। किनारे वाले में रुद्रनाथ से वापस आने वाले कुछ यात्री सोये
पड़े हैं। बीच वाले में हम कब्ज़ा कर चुके हैं। उसके बगल वाले भाग में रसोई है और
बाकि खाने पीने का सामान रखा है । हमने पहले चाय का आर्डर दिया और फिर खाना बनाने
को कहा तो लड़के ने बताया खाने में केवल दाल चावल ही है और कुछ नहीं । आपने खाना है
तो जल्दी ही बना दूंगा और जब तक आप चाय पियोगे दाल चावल तैयार हो जाएंगे। हमारे
पास कोई दूसरा चारा भी नहीं था। मैंने कहा ठीक है भाई ! पहले चाय लाओ और फिर खाना बनाओ.
इतना कह कर हम सब लोग उस झोपड़ी में लेट गए। 5 मिनट बाद चाय आ गई, सभी ने उठकर चाय पी और जब तक खाना बनकर तैयार होता सब ने
एक-एक एक झपकी ले ली। मैंने पूछा यार दाल जल्दी कैसे बन गई तो उसने बताया कि हम
लोग दाल को पीसकर रखते हैं इसलिए दाल गलने में ज्यादा देर नहीं लगती। मैंने कहा यह
दाल थोड़ी हुई,यह तो दाल का सूप हुआ। लड़का बोला - जी आप कुछ भी समझ लो यहां यही
चलता है।अब थके हरे मुसाफिर को खाने में दाल चावल या सूप ही सही, कुछ तो मिल रहा
था ,यही कम नहीं था।
खाना खाकर फिर से आगे के सफ़र पर चल पड़े , मौलिखरक (3071 मीटर) के बाद पेड़ कम
होने लगे हैं उनकी जगह बड़ी बड़ी झाड़ियों ने ले ली हैं । जल्दी ही लवीटी बुग्याल
(3225 मीटर) पहुँच गए जो मौली खरक से मात्र एक किलोमीटर दूर है । सिर्फ आधा घंटा लगा
यहाँ आने में । यहाँ भी एक छानी है जहाँ खाने-पीने और रात रुकने की सुविधा भी है। जिसके
मालिक बाबा किशन बिष्ट हैं वो छानी के बाहर ही खड़े हैं । हम अभी कुछ देर पहले ही
खा पीकर आये है इसलिए रुके नहीं । शायद बाबा हमें देखकर समझ गए है; फिर भी चलते
चलते पूछ लिया अभी पनार कितना दूर है । जबाब मिला एक- ढेड़ घंटा लग जायेगा । यहाँ भी
एक छोटा सा बुग्याल है जिसमे ढेर सारी भेड़ बकरियां चर रही है। तीन-चार झबरा कुत्ते
भेड-बकरियों के बीच में उनकी सुरक्षा के लिए मौजूद हैं । कुत्ते जोर जोर से भौंक
रहे हैं लेकिन उनका मुंह हमारे से विपरीत दिशा में हैं इसलिये हम निश्चिन्त होकर
चल रहे हैं । यहाँ से आगे चढ़ाई और भी कठिन हो गयी है । बड़े बड़े पत्थरों से सीड़ियाँ
बनी हुई है । ऊंचाई पर आ जाने से साँस भी जयादा चढ़ रहा है लेकिन मन को इस बात का
संतोष है कि अब मंजिल नजदीक ही है इसलिए सब धीरे-धीरे चल रहे हैं । अब पेड़ ,झाड़ियाँ
सब ख़तम हो चुके हैं । काफी ठंडी हवा चल रही है और बादलों के बड़े से झुण्ड ने हमें
अपनी आगोश में ले लिया है । बादलों को धीरे -2 चीरते हुए हम धार की तरफ बढ़ रहे हैं
जहाँ हमारी आज की मंजिल हमारा इंतजार कर रही है ।
ठीक शाम के पाँच हमें हम धार पर पहुँच जाते है सामने हरा भरा पनार बुग्याल
देखकर ख़ुशी से भगवान भोले नाथ का जयकारा लगाते हैं। सामने थोड़ी दुरी पर दो झोपडी
दिख रही हैं। पनार के इंट्री पांइट पर ही स्थानीय ‘इष्टदेवता’ और ‘भैरव’ का मंदिर है। छानी वाला लड़का धार पर खड़ा
हुआ हमें देख रहा है ,उसके ग्राहक आ रहे हैं । उसने हमसे पूछा की क्या पीछे और लोग
भी हैं । हमने जबाब दिया की हमारे साथ और कोई नहीं है । हम सीधा छानी पर पहुँचते
हैं और सामने वाले कमरे में हमें जगह दे दी जाती है । हमसे पहले दो बंगाली बाबु दुसरे
कमरे में रुके हैं बस और कोई यात्री नहीं है।
थोड़ी देर बाद चाय आ जाती है ,चाप पीकर बाहर पनार से दिख रहे नजारो को देखने के
लिए हम सब बाहर आ जाते हैं । यहाँ से दिखने वाली सभी चोटियों को बादलों ने ढक रखा
है, सिर्फ हलकी हलकी झलक दिख रही है । काफी देर बाहर घुमने के बाद जब ठण्ड लगने
लगी तो सभी कमरे में आकर कंबलो में घुस गए । रात को खाने में रोटी-सब्जी, दाल-चावल
सब है । आठ बजे से पहले ही खाना आ गया और खाना खाकर सब फिर से कम्बल और रजाई में
घुस गए और सो गए ।
अभी बस इतना ही ...बाकि अगले पार्ट में, तब तक आप यहाँ तक की
तस्वीरें देखिये ।
इस यात्रा के पिछले भाग पढ़ने के लिए नीचे लिंक उपलब्ध हैं ।
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पुंग बुग्याल |
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पुंग बुग्याल |
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छानी वाले के साथ |
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पुंग बुग्याल |
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पुंग बुग्याल से आगे दिख रहा जंगल |
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पुंग बुग्याल |
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यहाँ सभी पत्थर चमकीले हैं चांदी की तरह |
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जमी हुई काई |
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पेड़ों पर जमी हुई काई |
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ऊपर से ज़ूम करने पर दिख रहा पुंग बुग्याल |
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बादलों से झांकती चोटियाँ |
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पनार बुग्याल |
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पनार बुग्याल |
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पनार बुग्याल |
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पनार बुग्याल |
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पनार बुग्याल में रुकने की जगह |
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पनार बुग्याल |
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पनार बुग्याल |
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तितलियाँ |
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मौलिखरक और स्थानीय देवता |
बहुत बढ़िया भाई साहब
ReplyDeleteधन्यवाद विनोद भाई .
Deleteवाह मजा आ गया पढ़कर..पनार बुग्याल बेहद खूबसूरत है.... वहा के नज़ारे देख,सभी थकान छूमंतर हो गयी थी।
ReplyDeleteधन्यवाद गौरव भाई . सही कहा पनार बेहद खूबसूरत है .
Deleteबढ़िया नरेश जी। इस साल मई में फिर से जाना होगा मेरा भी इस रास्ते पर।
ReplyDeleteधन्यवाद बीनू भाई . सतोपंथ जब जाओ तो बताना .
Deleteजय भोलेनाथ....🙏
ReplyDeleteधन्यवाद अनिल भाई .जय भोले नाथ .
Deleteबहुत बढ़िया सहगल साब !! पूरा रास्ता ही समझा दिया आपने। एक बात पूछने की है - ये छानी बारह महीने खुली रहती हैं ? मतलब अगर हम रुद्रनाथ जाते हैं तो टैण्ट या स्लीपिंग बैग और राशन की जरुरत नहीं पड़ेगी ?
ReplyDeleteधन्यवाद योगी भाई .ये छानी सिर्फ यात्रा के दौरान ही खुली रहती हैं .
DeleteExcellent post with lot of beautiful pictures. Om Namah Shivaya.💐💐
ReplyDeleteThanks Dear.Om Namah Shivaya.
Deleteबढ़िया जानकारी और ढेर सारी सुनदर तस्वीरों से भरी शानदार पोस्ट .
ReplyDeleteधन्यवाद अजय भाई
DeleteNice. Good informative post . Picture are very captivating.
ReplyDeleteधन्यवाद राज़ भाई .
Deleteरास्ते को देख कर ही लग रहा कि जर्मन की लड़ाई आसान नही हुई होगी।
ReplyDeleteओर यह बात स्थानीय निवासियों ने बड़े काम की कही भाई जी, की हरियाणा वाले घूमते नही है। जो भी हरियाणवी घूमने जाता है वो लगभग साधारण जगह जाता है, ये ट्रेक वगरह ज्यादा नही करता।
ओर नरेश भाई साहब, हर बार की तरह इस बार भी आपका यह केख जानकारी से परिपूर्ण रहा। कोई भी नव-आगन्तुक आपके लेख को लड़ कर रुद्रनाथ यात्रा कर सकता है।
धन्यवाद अक्षय भाई .
Deleteबहुत बढ़िया यात्रा और ट्रेक विवरण , सभी फ़ोटो भी शानदार !!!
ReplyDeleteजय भोले
धन्यवाद पाण्डेय जी .जय भोले नाथ
Deleteबहुत बढ़िया यात्रा पुंग से पनार बुग्याल तक का । रास्ता ट्रेक कुछ कठीन ही लग रहा है । खूबसूरत चित्र . लेख पढ़कर मजा आ गया
ReplyDeleteधन्यवाद रीतेश जी .रास्ता कठिन ही था .
Deleteहरियाणा के लोग तो बहुत घुमते है, उन जनाब को कुछ गलतफहमी हो गई होगी। बुग्याल देखना बहुत अच्छा लगता है। बाकी फोटो व आपका लेखन कमाल है।
ReplyDeleteधन्यवाद सचिन जी .वैसे हरियाणा के लोग घुमने में बहुत पीछे हैं .
Deleteसुन्दर यात्रा मजा आ गया चलय अगले भाग में चलते ह
ReplyDeleteधन्यवाद अशोक शर्मा जी .
Deleteखतरनाक रास्ता उस पर इतनी तीखी चढ़ाई ,हौसले परस्त करने के लिए काफी है लेकिन आप लोगो के हौसले बुलंद थे ।इसलिए चले जा रहे हो, गजब का आत्मविश्वाश भरा है👌👌👌
ReplyDeleteधन्यवाद बुआ जी .भोले नाथ के आशीर्वाद से आत्मविश्वाश की कमी नहीं रहती .
Deleteबढ़िया वृत्तान्त नरेश जी, ढाबे वाले ने जो दाल आपको तुरन्त बनाकर परोसी वो उत्तराखंड की लोकल दाल है, उसको चैसूं कहते हैं। गहथ (कुलथ) को पीस कर रख देते हैं। हम पहाड़ी लोगों को बहुत स्वादिष्ट लगती है, बस बनी तरीके से हो तो। बहुत पौष्टिक होती है, पथरी से परेशान लोग अगर इस दाल के पानी को रोजाना पिएं तो पथरी को खत्म कर देती है।
ReplyDeleteधन्यवाद बीनू भाई .कुल्थ की दाल तो एक दो बार हमने यहाँ भी खायी है .इसका पानी पथरी को खत्म कर देता है
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